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शनिवार, 28 जनवरी 2017

बुढापा एन्जॉय करिये 

आपका चलता नहीं बस,कामना होती कई है 
कुछ न कुछ मजबूरियों बस ,पूर्ण हो पाती नहीं है 
आपका चलता नहीं बस ,व्यस्तता के कभी कारण 
कभी मन संकोच करता ,गृहस्थी की कभी उलझन 
भावना मन में अधूरी  दबा तुम  रहते   उदासे
पूर्ण करलो वो भड़ासें ,जब तलक चल रही साँसे 
अभी तक जो कर न पाये ,वो सभी कुछ ट्राय करिये 
,बुढापा एन्जॉय   करिये ,बुढापा  एन्जॉय  करिये 
जिंदगानी के सफर की ,सुहानी सबसे उमर ये 
तपा दिन भर,प्रखर था जो ,सूर्य का ढलता प्रहर ये 
सांझ की शीतल हवाएँ,दे रही तुमको निमंत्रण 
क्षितिज में सूरज धरा  को,कर रहा अपना समर्पण 
चहचहाते पंछियों के ,लौटते दल ,नीड में है 
यह मधुर सुख की घडी है,आप क्यों फिर पीड़ में है 
सुहानी यादों के अम्बर में,बने पंछी  बिचरिये 
बुढापा एन्जॉय करिये ,बुढापा एन्जॉय करिये 
अभी तक तो जिंदगी तुम ,औरों के खातिर जिये है
जो कमाया या बचाया ,छोड़ना किसके लिए है 
पूर्ण सुख उसका उठा लो ,स्वयं हित ,उपभोग करके 
हसरतें सब पूर्ण करलो ,रखा जिनको  रोक करके 
बचे जीवन का हरेक दिन ,समझ कर उत्सव मनायें  
मर गए यदि लिए मन में , कुछ अधूरी कामनाएं  
नहीं मुक्ति मिल सकेगी ,सोच कर ये जरा डरिये 
बुढापा एन्जॉय करिये ,बुढापा एन्जॉय  करिये 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'
 

रविवार, 22 जनवरी 2017

खराब मौसम

जब कभी भी ये मौसम खराब होता है
अपने हाथों में तो जाम ए शराब होता है
क्योंकि कहते है उसे काटता नहीं जूता ,
जो कि पैरों में ,पहने  जुराब  होता है
ठिठुरती सर्दियों में नींद आती मुश्किल से ,
चैन से  सोता ,जो ओढ़े लिहाफ होता है
चांदनी रोज कहाँ,एक दिन अमावस को,
न जाने गुम कहाँ ,वो आफताब  होता है
हजारों हसरतें होती सभी की दुनिया में,
नहीं पूरा किसी का ,हरेक ख्वाब होता है
एक दो चार ही अम्बानी ,बिरला बनते है,
मेहरबां अल्ला न ,सब पर जनाब होता है
कभी इठलाता जो जुल्फों में हुस्न की सजकर ,
 कभी मैयत में वो बिखरा  गुलाब होता  है
आज तो जी लें,मरेंगे तो देखा जाएगा ,
कयामत को तो सभी का हिसाब होता है

मदनमोहन बाहेती'घोटू'          
बूढा आशिक़

बूढा आशिक़ लोग कहते है मुझे ,
क्या बुढापे में न होती आशिक़ी
कुलबुलाता अब भी कीड़ा इश्क़ का ,
जवानी की उम्र ,जब कि  जा चुकी
क्या जवानों ने ही है लेकर रखा ,
आशिक़ी का ठेका ,बूढ़े कम नहीं
बूढ़े सीने में भी है दिल धड़कता,
बूढ़े तन में ,होता है क्या दम नहीं
दिल तो दिल है,बूढा हो या हो जवां ,
जाने किस पर,क्या पता,आजाय कब
लोग कहते ,छोडो चक्कर इश्क़ का ,
इस उमर में,राम का लो ,नाम  अब
राम को  भी  जो करेंगे याद  हम,
इश्क़ होगा वो भी सच्चा राम से
उम्र कुछ भी हो ,न लेकिन छूटती ,
इश्क़ की आदत  कभी ,इंसान से

घोटू 
घोड़ी पर बैठने की सजा

रहती सवार सर पे,हरदम है बीबीजी ,
सेवा में दौड़ दौड़ ,हुआ जाता पतला हूँ
जिद करते बच्चे की ,घोडा बनो पापाजी,
बिठा पीठ पर उनको,घुमा रहा,पगला हूँ
गृहस्थी की गाडी में ,जुता हुआ हूँ जबसे ,
घरभर का बोझा मैं ,उठा रहा सगला हूँ
गलती से एकबार ,घोड़ी पर क्या बैठा ,
घोडा बन बार बार,चूका रहा बदला हूँ

घोटू
पचहत्तरवें जन्मदिन पर

सही हंस हंस, उम्र की हर पीर मैंने 
नहीं खोया ,मुसीबत में , धीर मैंने
भले  ही हालात अच्छे थे या  बदतर
इस तरह मैं पहुंच पाया हूँ  पिचहत्तर
सदा हंस कर गले सबको ही लगाया
जो भी था कर्तव्य,अपना सब निभाया
खुले हाथों ,खुले दिल से प्यार बांटा
मुस्करा कर हर तरह का वक़्त काटा
धूप में भी तपा और सर्दी में ठिठुरा
बारिशों में भीग कर मैं और निखरा
तभी खुशियां मुझे हो पायी मय्त्सर
इस तरह मै पहुँच पाया हूँ  पिचहत्तर
प्रगति पथ पर ठोकरें थी,छाँव भी थी
मुश्किलें और मुसीबत हर ठाँव भी थी
गिरा,संभला ,फिर चला या डगमगाया
दोस्तों  ने   होंसला  भी  था  बढाया
मिले निंदक भी कई तो कुछ प्रशंसक
करी कोशिश डिगाने की मुझे भरसक
राह  मेरी ,रोक वो पाए नहीं ,पर
इस तरह मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर 
साथ मेरे धीर भी था,धर्म भी था
माँ पिता का किया सब सत्कर्म भी था
दुश्मनो ने भले मेरी  राह रोकी
भाई बहनो और सगो ने पीठ ठोकी
निभाने को साथ जीवनसंगिनी थी 
दोस्तों की दुआओं की ना कमी थी
साथ सबने ही निभाया आगे बढ़कर
इसलिए मै पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
अभी तक कम ना  हुई है महक मेरी
वो ही दम है ,खनखनाती चहक मेरी
किया हरदम कर्म में विश्वास मैंने 
सफलता की नहीं छोड़ी आस मैंने
लीन रह कर ,प्रभु  की आराधना में
जुटा ही मैं रहा जीवन साधना में
प्रगतिपथ पर ,अग्रसर था,उत्तरोत्तर
इसलिए मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
तपा हूँ,तब निखर कर कुन्दन बना हूँ
महकता हूँ,सूख कर चन्दन बना हूँ
जाने अनजाने बुरा कुछ यदि किया हो
भूल से  यदि हो गयी कुछ गलतियां हो
निवेदन करबद्ध है ,सब क्षमा करना
प्रेम और शुभकामनाएं ,बना रखना
प्यार सबका ,रहे मिलता  ,जिंदगी भर
इसलिए  मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
तीन चौथाई उमर तो कट गयी  है
रास्ते की मुश्किलें सब हट गयी है
भले ही तन में नहीं वो जोश बाकी
मगर अब भी चल रहा हूँ, होंश बाकी
वक़्त के संग भले जो मैं जाऊं थक भी
कामना है करूंगा ,पूरा शतक भी
पार  करना है  मुझे यह भवसमन्दर
इसलिए मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 21 जनवरी 2017

ग्रहों का खेल 

कहते है कि आदमी का भाग्य सारा ,
                   नवग्रहों का खेल ये कितना गजब है 
सिर्फ नौ ,बारह घरो की कुंडली में,
                   अपने क्रम से घूमते रहते ही सब  है
 कोई बैठा रहता है कोई के घर में  ,
                 और किसी की किसी के संग दुश्मनी है 
कोई सा ग्रह भाग्य के स्थान पर है ,
                     देखता  पर वक्रदृष्टी से  शनि है
 शुक्र गुरु मिल लाभ के स्थान पर है ,
                       शत्रु के स्थान पर राहु डटा  है 
कर रहा मंगल किसी का है अमंगल ,
                    और किसी का सूर्य केतु से कटा है 
है उदय का ग्रह कोई तो अस्त का है,
                   और किसी का नीच वाला चन्द्रमा है 
और कहीं पर बुध बैठा स्वग्रही बन 
                    अजब सा व्यवहार सबका ही बना है 
सबकी अपनी चाल होती,घर बदलते ,
                   कोई किस से मिल अजब संयोग देता
शत्रु के घर ,मित्र ग्रह रहते कई दिन ,
                     कोई सुख तो कोई प्रगति रोक देता 
सिर्फ नौ ग्रह,रह न पते मगर टिक कर ,
                    जब कि है उपलब्ध बारह घर यहां पर
एक दूजे के घरों में  घुसे रहते, 
                जब कि सबका ,अपना अपना है वहां घर 
मित्र कोई है किसी का, कोई  दुश्मन 
                            चाल अपनी चलते ही रहते है हर दिन 
तो बताओ ,इतने सारे लोग हम तुम,
                       दोस्त बन ,संग संग रहे,क्या है ये मुमकिन 
हम करोड़ों लोग है  और  कई बेघर ,
                          भटकने का सिलसिला ये रुका  कब है 
 कहते है कि आदमी का भाग्य सारा ,
                             नौ ग्रहों का खेल ये कितना अजब है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

क्या पता 

कौन की किससे निभेगी,क्या पता 
कौन की   गुड्डी  उड़ेगी,क्या पता 
आज मिल कर उड़ाने आये सभी,
पर पतंग किस की कटेगी.क्या पता 
कुछ धरम की,कुछ का मंजा जात का 
और किसी ने ले लिया संग हाथ का 
बेटे ने ही बाप की जब काट दी ,
पप्पू की कैसे बचेगी, क्या पता 
कौन जाने , किसका  मंजा तेज है 
और किसका,किससे लड़ता पेंच है
 ढील देकर कौन किसकी काट दे,
और फिर किसकी बचेगी.क्या पता 
बहनजी ने सब पतंगे बेच दी 
डोर लेकिन हाथ में अपने रखी
भारी है कुछ ,उड़ने में असमर्थ है,
पर लगा ,फिर भी उड़ेगी ,क्या पता  
बाहुबलियों की पतंगे ,चन्द है 
नोटबन्दी  ने किया सब बन्द है 
अब तो शाही पतंगे ,आकाश में,
बचेगी या फिर उड़ेगी ,क्या पता 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 14 जनवरी 2017

जीवन क्रिकेट 

इस जीवन क्रिकेट के पिच पर ,
खेल रहे हम सभी खिलाड़ी 
सबकी अपनी अपनी क्षमता ,
कोई सिख्खड़ ,कोई अनाड़ी 
मै भी जब इस पिच पर उतरा ,
था नौसिखिया ,सभी सरीखा 
हाथों में गिल्ली डंडा ले,
पहला खेल उसी से सीखा 
धीरे धीरे बड़ा हुआ तो ,
ये क्रिकेट सी दुनिया देखी 
तब ही सीखा बेट पकड़ना ,
और बॉल भी तब ही फेंकी 
जब से बेट हाथ में आया  ,
मैंने अपना हुनर दिखाया 
बचा विकेट ,रन लिए मैंने,
थोड़ा मुझे खेलना आया 
धीरे धीरे रन ले लेकर , 
कभी शतक भी मैं जड़ पाया 
  कभी एलबीडब्ल्यू आउट ,
कभी कैच मैंने पकड़ाया 
कभी बॉल संग छेड़छाड़ के ,
लोगों ने इल्जाम लगाए 
कितनी बार अपील करी कि,
मैं आउट हूँ,वो चिल्लाये 
कभी रेफरी ने सच देखा,
कभी तीसरे अम्पायर ने 
किन्तु खेल को पूर्ण समर्पित ,
टिका हुआ अब भी पिच पर मैं 
हारा ,लोगो ने दी गाली,
जीता तो बिठलाया काँधे
पर मैंने धीरज ना खोया,
डिगे न मेरे अटल इरादे 
स्पिन गुगली बॉलिंग करके ,
खूब दिये लोगों ने  धोखे 
लकिन जब भी पाए मौके ,
मैंने मारे ,छक्के,चौके 
धीरे धीरे रहा खेलता ,
आपा ना खोया,धीरज धर 
अपना ध्यान खेल पर देकर 
जमा हुआ हूँ अब भी पिच पर 
पांच दिवस के टेस्ट मैच के ,
चार दिवस तो बीत गए है 
अब तक का स्कोर देख कर ,
लगता है हम जीत गए है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू ' 

  
 
कागज की नाव 

बचपन में 
बारिश के मौसम में 
जब बहते परनाले ,
बन जाते थे नन्ही नदिया 
मैं तैराता था उसमे ,
कागज़ की नैया 
और गीली माटी में ,
नंगे पैरों ,छपछप करता हुआ ,
उसके पीछे दौड़ा करता था 
और जब तक वो आँखों से ,
ओझल नहीं हो जाती ,
पीछा नहीं छोड़ा करता था 
फिर नयी  नाव बना कर तैराता 
पूरी बारिश,यही सिलसिला चला जाता 
आज सोचता हूँ ,
मैंने जीवन भर ये ही तो किया है 
कोई न कोई कागज की नाव के पीछे दौड़ ,
अब तक जीवन जिया है 
हाँ,नैयायें बार बार बदलती गयी 
कुछ डूबती गयी  ,कुछ आगे बढ़ती गयी 
कभी पढ़लिख कर डिग्री पाने की नाव थी 
कभी अच्छी नौकरी पाने की चाह थी 
या फिर गृहस्थ जीवन जमाना था 
बाद में अपनी जिम्मेदारियां निभाना था 
इन चक्करों में ,कितनी ही ,
हरे और गुलाबी नोटों की नाव के पीछे दौड़ा
उनका पीछा नहीं छोड़ा 
और उमर के इस दौर में ,
जब मैं पक गया हूँ 
कागज़ के नावों के पीछे,
 दौड़ते दौड़ते थक गया हूँ  
 आज मुझे एक ऐसी नाव की तलाश है ,
जो मुझसे कहे 
मेरे पीछे तुम बहुत दौड़ते रहे 
आओ,आज मैं  तुम्हारी थकान मिटा देती हूँ 
तुम मुझमे बैठ जाओ. ,
मैं तुम्हे बैतरणी पार करा देती हूँ 

मदनमोहन बाहेती'घोटू '
 तुम क्यों होते हो परेशान 

आई जीवन की अगर शाम 
तुम क्यों होते हो  परेशान 
ये रात अमां की ना काली ,भैया ये तो दीवाली है 
तुम इसे मुहर्रम मत समझो,ये ईद सिवइयों वाली है 
तुमने उगता सूरज देखा ,तपती दोपहरिया भी देखी
यौवन के खिलते उपवन को ,महकाती कलियाँ भी देखी 
हंसती गाती और मुस्काती ,दीवानी परियां भी देखी 
कल कल करती नदियां देखी ,तूफानी  दरिया भी देखी 
कब रहा एक सा है मौसम 
खुशियां है कभी तो कभी गम 
सूखे पतझड़ के बाद सदा ,आती देखी हरियाली  है 
                                    ये ईद सिवइयों वाली है 
कितनी ही ठोकर खाकर तुम ,चलना सीखे,बढ़ना सीखे 
हर मोड़ और चौराहे पर  ,पाये अनुभव ,मीठे ,तीखे 
जी जान जुटा कर लगे रहे ,अपना कर्तव्य  निभाने को 
दिनरात स्वयं को झोंक दिया, तुमने निज मंजिल पाने को
सच्चे मन और समर्पण से 
तुम लगे रहे तन मन धन से 
तुम्हारी त्याग तपस्या से ,घर में आयी खुशियाली है 
                                    ये ईद सिवइयों वाली है
अब दौर उमर का वो आया ,मिल पाया कुछ आराम तुम्हे 
निभ गयी सभी जिम्मेदारी  ,अब ना करना  है काम तुम्हे 
अब जी भर कर उपभोग करो ,तुमने जो करी  कमाई है 
खुद के खातिर भी जी लेने की ,ये घडी सुहानी आई  है 
क्या हुआ अगर तुम हुए वृद्ध 
अनुभव में हो सबसे समृद्ध 
लो पूर्ण मज़ा ,क्योंकि ये उमर ,अब तो बे फ़िक्री वाली है 
                                           ये ईद सिवइयों वाली है 
  मदनमोहन बाहेती'घोटू'
आओ हम संग संग धूप चखें 

हो सूरज किरण से आलोकित ,दूना  तुम्हारा रूप सखे 
इस ठिठुराती सी सर्दी में आओ हम संग संग धूप चखें 
निज नाजुक कर से मालिश कर ,तुम मेरे सर को सहलाओ 
मैं छील मुंगफलियाँ तुमको दूं,तुम गजक रेवड़ी संग खाओ 
आ जाए दोहरा मज़ा अगर, मिल जाए पकोड़े खाने को ,
और संग में हो गाजर हलवा  जो मौसम के अनुरूप सखे 
                                   आओ हम संग संग धूप  चखें 
मक्की की रोटी गरम गरम और संग साग हो सरसों का 
मख्खन से हाथों से खाऊं ,पूरा हो सपना  बरसों का 
हो उस पर गुड़ की अगर डली,गन्ने के रस की खीर मिले ,
सोने पे सुहागा हो जाए ,हमको सुख मिले अनूप  सखे 
                                  आओ हम संग संग धूप  चखे 
मैं कार्य भार  से मुक्त हुआ ,चिंता है नहीं फिकर कोई 
हम चौबीस घंटे साथ साथ ,मस्ती करते,ना डर  कोई 
सूरज ढलने को आया पर ,मन में ऊर्जा है ,गरमी  है,
हो गयी शाम,चुस्की ले ले,अब पियें टमाटर सूप  सखे 
                                आओ हम मिलकर धूप चखें 

मदनमोहन बाहेती;घोटू'
मकर संक्रांति पर प्रणयनिवेदन 

दिन गुजारे ,प्रतीक्षा में ,शीत में ,मैंने  ठिठुर कर 
सूर्य  आया  उत्तरायण,नहीं  तुमने  दिया  उत्तर 
है मकर संक्रान्ति आयी ,शुभ मुहूरत आज दिन का 
पर्व है यह खिचड़ी का ,दाल चावल के मिलन का 
हो हमारा मिलन ऐसा ,एक दम ,हो जाए हम तुम 
दाल तुम ,मैं बनू चावल,खिचड़ी बन जाय हमतुम 
कहते कि आज के दिन ,दान तिल का पुण्यकारी 
पुण्य कुछ तुम भी कमा लो,बात ये मानो  हमारी 
इसलिए तुम आज के दिन,प्रिये यहअहसान करदो  
तिल तुम्हारे होठ पर जो है,मुझे  तुम  दान  कर दो 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 4 जनवरी 2017

 परेशां हम खामखां है 

उम्र का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां है 
कल तलक हम शूरमा थे ,बन गए अब चूरमा है 

उगलते थे आग हम भी ,थे कभी ज्वालामुखी हम 
पड़े है जो आज  ठन्डे ,हो रहे है क्यों  दुखी हम 
कभी गरमी ,कभी सरदी ,बदलता मिज़ाज़ मौसम 
एक जैसा वक़्त कब  है ,कभी खुशियां है कभी गम 
सूर्य की तपती दुपहरी ,शाम बन कर सदा ढलती 
राख में तबदील होती  है हमेशा  आग जलती 
जोश हर तूफ़ान का  ,एक मोड़ पर आकर थमा है 
उमर का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां  है 
क्यों हमारी सोच में अब आ गयी मायूसियां है 
सूरमाओं ने हमेशा  ,शेरो सा जीवन  जिया है 
हमेशा ,हर हाल में खुश ,मज़ा तुम लो जिंदगी का 
सूर्य की अपनी तपिश है ,अलग सुख है चांदनी का 
सख्त होती बाटियाँ है ,चूरमा होता  मुलायम 
दांत में अब दम नहीं तो क्यों इसका स्वाद ले हम 
रौशनी दें जब तलक कि तेल दिए में बचा है 
उमर का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

टावर वन की पिकनिक 
१ 
पिकनिक किट्टी के लिए,छोड़ा अपना 'नेस्ट'
टावर वन की  रानियां, जा  पहुंची  ' फारेस्ट'
जा पहुंची ' फारेस्ट ', मचाई  मस्ती  ऐसी 
खुली हवा में ,सजधज ,उडी तितलियों जैसी 
सबने अपना अपना एक  पकवान  बनाया 
सबने मिलजुल ,बीस घरों का स्वाद उठाया 
२ 
वन्दनाजी की सेन्डविच,और पीनट की चाट 
मीनाजी के सूप का ,था अपना ही ठाठ 
था अपना ही ठाठ ,ढोकले तृप्तिजी के 
एक से बढ़ एक स्वाद रहे पकवान सभी के  
सुनीता जी की खीर, जलेबी तारा जी  की 
राज आंटी की चाय ,रही फेवरिट सभी की 
 सीमाजी की पूरियां,मिस्सी ,बड़ी लजीज 
शालिनी जी के दहीबड़े,बड़े गजब की चीज
बड़े गजब की चीज ,स्नेहा जी  के छोले 
अनीता जी की दाल बाटियाँ ,सर चढ़ बोले 
मोनिका जी का चिल्ली चाप ,चटपटा सुहाया 
कंचन जी का फ्रुटसलाद ,सभी को भाया 
४ 
मिले जुले पकवान थे ,मिलाजुला था स्वाद 
मिल जुल खाये सभी ने,सदा रहेंगी याद 
सदा  रहेगी  याद ,किट्टी के पिकनिक वाली 
खुली  धूप  में खेलकूद और मस्ती प्यारी 
फिर भी दिल का एक कोना था सूना सूना 
होते पति जो साथ,मज़ा आ जाता  दूना 

घोटू 
  
 


              

रविवार, 1 जनवरी 2017

गुजरते लम्हे.

हर "दिन" अपने संग कुछ लेकर आता है
कभी कुछ  हमसे ले कर चले जाता है,

जो कभी टूटे जाये कोई ख़्वाब अपना,
तो अगला पल फिर नयी उम्मीदे ले अाता है,

किसी पल जो गम में भींग जाये आँखे,
तो अगला लम्हा यार के मानिद रुमाल थमाता है,

जो एक पल को ख़ुशी हो भी जाए जुदा तुमसे,
तो अगला पल मुस्कुरा के बाँहे फैलाता है,

कोई लम्हा ले आता हैै, मौसम ऐ हिज़्र
तो कोई दिन यहाँ, शाम ऐ वस्ल दे जाता है,

कोई दिन यहां वीरानियों के मेले दिखाता है
तो दिन का कोई लम्हा महफ़िल ऐ अहवाब सजाता है,

कोई लम्हा ठोकर देकर गिराता है ,
तो अगला लम्हा फिर से उठकर जीना सिखाता है,

यूँ ही लम्हे दर लम्हे, एक लम्हे में साल गुज़र जाता है,
तो आता लम्हा अपने संग एक नया साल ले आता है,

बस जीना होता है, हर लम्हे में ज़िन्दगी को यहाँ,
की रिवाज़ ऐ वक़्त है "शज़र"
जो बीता तो फिर वापस नही आता.!

©अंकित आर नेमा "शज़र"






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