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मंगलवार, 15 अगस्त 2017

मोह माया को कब त्यागोगे 

इस सांसारिक सुख के पीछे ,तुम कब तक,कितना भागोगे 
दुनियादारी में उलझे हो , मोह  माया  को  कब  त्यागोगे 

झूंठे है सब रिश्ते नाते ,ये है तेरा  ,ये है मेरा 
तुम तो हो बस एक मुसाफिर ,दुनिया चार दिनों का डेरा 
पता नहीं कब आये बुलावा ,सोये हो तुम,कब जागोगे 
इस सांसारिक सुख के पीछे,तुम कब तक ,कितना भागोगे
 
धरी यहीं पर रह जायेगी ,ये तुम्हारी दौलत सारी 
साथ न जाती कुछ भी चीजें,जो तुमको लगती है प्यारी 
कुछ घंटे भी नहीं रखेंगे,जिस दिन तुम काया त्यागोगे 
इस सांसारिक सुख के पीछे,तुम कब तक,कितना भागोगे
 
सबके सब है सुख के साथी,नहीं किसी में सच्ची निष्ठां 
खाये सब पकवान रसीले,अगले दिन बन जाते विष्ठा 
जरूरत पर सब मुंह फेरेंगे,अगर किसी से कुछ मांगोगे 
इस सांसारिक सुख के पीछे,तुम  कब तक ,कितना भागोगे 

मदन मोहन बहती'घोटू'

सोमवार, 14 अगस्त 2017

जल से 

ए जल ,
चाहे तू पहाड़ों पर 
उछल उछल कर चल 
या झरने सा झर 
या नदिया बन  कर
कर तू  कल कल 
या कुवे में रह दुबक कर 
या फिर तू सरोवर 
की चार दीवारी में रह बंध कर 
या बर्फ बन जा जम कर 
या उड़ जा वाष्प बन  कर 
या फिर बन कर  बादल 
तू कितने ही रूप बदल 
तेरी अंतिम नियति है पर  
खारा समंदर 

मदन मोहन बाहेती'घोटू '
ये बूढ़े बड़े काँइयाँ होते है 

अरे ये तो सबके आनेवाले जीवन की परछाइयां होते है 
जाने क्यों लोग कहते है कि ये बुड्ढे बड़े काँइयाँ  होते है 

जवानी की  कटती हुई पतंग को ,उछल उछल  कर 
ये कोशिश करते  है ,और रखते है पकड़ पकड़ कर 
और उसे फिर से उड़ाने का ,करते रहते है प्रयास 
अपनी ढलती हुई उम्र में भी,मन में लेकर के ये आस 
ऊपरवाले की कृपा से ,शायद किस्मत मेहरबान हो जाए 
या उनकी डोर किसी नई नवेली पतंग से उलझ जाए 
क्योकि पुराने पतंगबाज है ,पेंच लड़ाने  में  माहिर है 
लाख कंट्रोल  करें,पर मचलता ही रहता उनका दिल है 
इसलिए कोशिश कर के ,बहती गंगा में हाथ धोते है 
जाने क्यों लोग कहते है कि ये बुड्ढे बड़े  काँइयाँ होते है 

भले ही धुंधलाई सी नज़रों से ,साफ़ नज़र नहीं आता है 
सांस फूल जाती है ,ठीक से चला  भी नहीं जाता  है 
भले ही निचुड़े हुए कपड़ों की तरह शरीर पर सल हो 
चेहरे पर बुढ़ापा ,स्पष्ट नज़र आता हो ,लगते दुर्बल हो 
मगर सजधज कर ,आती जाती महिलाओं को ताड़ते है
कभी तिरछी नज़र से देखते ,या कभी  आँखे फाड़ते है 
बस कुछ ही समझदार है जो कि अपनी उमर विचारते है 
और अपने जैसी ही किसी बुढ़िया पर ,लाइन  मारते है 
वरना बाकी सब तो बस जवान हुस्न के सपने संजोते है 
जाने क्यों लोग कहते है कि ये बुड्ढे बड़े काँइयाँ होते है 

हर  बुजुर्ग का अलग अलग ही ,अपना  हाल होता है 
कोई मालामाल होता है तो कोई खस्ताहाल  होता है 
कोई थका तो नहीं है पर फिर भी  रिटायर हो गया है
कोई झुकी हुई  डाल का ,पका हुआ फल हो गया है 
किसी के बच्चे उसे छोड़ कर ,हो गए विदेश वासी है 
इसलिए उसके जीवन में तन्हाई और छाई उदासी है 
फिर भी परिस्तिथियों से समझौता कर के ये जीते है 
बाहर से मुस्कान ओढे रहते  है पर अंदर से  रीते है 
ये अकेलेपन के सताये हुए है,और तन्हाईयाँ ढोते है 
जाने क्यों लोग कहते है कि ये बुड्ढे बड़े काँइयाँ होते है 

ऐसे में जो मन बहलाने को जो इधर उधर ताक लेते है 
आते जाते सौंदर्य की तरफ, जो चुपके से  झांक लेते है 
तो ये कोई इनकी शरारत नहीं ,थोड़ा सा टाइमपास है 
जी को लगाने के लिए ये  बस ये ही तो हास परिहास  है 
इनकी हरकतों पर नहीं ,इनकी मनोस्तिथि पर गौर करो 
इनको संवेदना दिखलाओ,इनकी परिस्तिथि पर गौर करो 
इन  हालातों में भी ,उनके जीने के जज्बे को सलाम करो 
इन्हे इज्जत बख्शो ,इनके चरण छुवो और  प्रणाम  करो 
क्योकि आशीर्वाद देने  को ,इनके हाथ हमेशा उठे होते है 
जाने क्यों लोग कहते है कि ये बुड्ढे बड़े काँइयाँ होते है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
       कृष्णजी का हैप्पी बर्थडे 

माखनचोर बर्थडे  तेरा  ,ख़ुशी ख़ुशी  इस तरह मनाया 
दफ्तर में ,अपने साहब पर ,मैंने  मख्खन खूब  लगाया 
बढ़ती हुई उमर में अपनी ,रास रचाना ,रास न आये 
बालकृष्ण  के जन्मदिवस पर ,उजले बाल, कृष्ण करवाये  
रख कर, दिन भर व्रत ,तुम्हारे जन्मदिवस की ख़ुशी मनाई 
मुझे  रिटर्न गिफ्ट में अब तुम  ,दे दो इतना ज्ञान कन्हाई 
छोड़ी मथुरा ,गए द्वारिका ,यह तो अब बतलादो नटवर 
मज़ा समन्दर तीरे ज्यादा आया या यमुना के तट पर 
तुमने आठ आठ रानी संग , तार तम्य कैसे बिठलाया 
कैसे सबके साथ निभाया, मैं तो  एक संभाल न पाया
ओ  गीता के ज्ञानी  गायक ,कैसी थी तुम्हारी माया 
रह कर बने तटस्थ सारथी ,युद्ध  पांडवों को जितवाया  
उस बंशी में क्या जादू था,राधा मुग्ध हुई जिस धुन पर 
क्यों लड्डूगोपाल रूप में ,अब भी पूजे जाते घर घर 
लोग  आपको खुश करने को , राधे राधे क्यों  है गाये 
इतनी बात अगर समझा दो,मेरा जनम सफल हो जाये  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 9 अगस्त 2017

समृद्धि और संतोष  

आज मैं जब बह किसी बच्चे को ,
मोबाईल पर देर तक 
अपने किसी दोस्त से ,
करते हुए देखता हूँ गपशप 
मुझे अपने बचपन के ,
दिनों  के वो छोटे छोटे डब्बे है याद आते 
जिनमे छेद  कर के,
एक मोटे  से धागे से बाँध कर ,
हम टेलीफोन थे बनाते 
और अपने दोस्तों से 
बड़ी शान से थे बतियाते 
वो अस्पष्ट से सुनाई देते हुए शब्द,
और वो फुसफुसाते हुए होठ ,
हमे कर देते थे निहाल जितना 
आज का आई फोन भी,
 सुख नहीं दे पाता उतना 
एक छोटी सी दूरबीन,
 जिसके एक सिरे पर ,
फिल्म की कटिंग की छोटी छोटी तस्वीर 
जब दुसरे सिरे पर लगे लेंस से ,
बड़ी बड़ी नज़र आती थी 
हमारी बांछें खिल जाती थी 
या फिर हाट,बाज़ार,मेले का वो बाइस्कोप 
जब ताजमहल से लेकर ,
नहाती मोटी  धोबन के दर्शन था कराता  
हमे कितना मज़ा था आता 
जो सुख आज टीवी या पीवीआर,
 के सिनेमा घरों में भी नहीं मिल पाता 
बड़े बड़े दस मंजिली स्टार क्रूज़ में बैठ कर 
या गोवा या पट्टेया के स्पीड बोट  में सैर कर 
आज हम वो आनंद नहीं महसूस कर पाते 
जो बरसात में हमें मिलता था ,
जब हम घर के आगे की बहती नाली में,
कागज की नाव थे तैराते 
दूर आसमान में उड़ते हुए हवाईजहाजों को ,
देख कर ,उनके साथ साथ की दौड़ 
बिजनेस क्लास में हवाई सफर के ,
आनंद  को देती है पीछे छोड़ 
कहाँ तब का गर्मी की रातों में ,
अपने परिवार के साथ ,खुली छतों पर ,
तारे गिनते हुए ,ठंडी ठंडी हवा में सोना 
कहाँ  अब का ,मन बहलाने के लिए ,
गर्मी में किसी हिलस्टेशन पर ,
पांच सितारा होटल के ए सी रूम का 
ये गुदगुदा बिछौना 
दोनों में है कितना अंतर 
कौन था ज्यादा सुखकर 
पहले हम हर छोटी छोटी सुविधा में ,
खुशियां ढूंढते थे ,और संतोष से जीते थे 
मिट्टी की मटकी का ठंडा पानी खुश हो पीते थे 
और जिंदगी में आज ,
इतनी सुख और सुविधाएँ उपलब्ध है ,
पर मन में संतोष नहीं है 
ये जमाने की रफ़्तार है ,
पर क्या इसमें हमारा दोष नहीं है? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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