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रविवार, 7 अप्रैल 2013

शहद का छत्ता

           शहद का छत्ता

राहुल बाबा ने दिया ,बहुत सही सन्देश
छत्ता है ये   शहद का ,    तेरा मेरा देश 
तेरा मेरा देश   और  जनता  मधुमख्खी
बूँद बूँद दे टैक्स  ,शहद  से इसको भरती 
कह 'घोटू' कविराय  और ये सत्ता वाले
शहद चुरा कर सारा ,स्विस बेंकों में डाले
घोटू

ज्वार -भाटा

     लहत तट संवाद -2
       ज्वार -भाटा 
तुम निर्जीव समुन्दर तट हो ,
                 और लहर हूँ ,मै मदमाती
मै ही हरदम,आगे बढ़ कर ,
                मधुर मिलन को,तुमसे आती
 कुछ पल लेते ,बाहुपाश में,
               पी रस मेरा ,   मुझे  छोड़ते         
सचमुच तुम कितने निष्ठुर हो,
               मेरा दिल ,हर बार तोड़ते 
मै ही सदा ,पहल करती हूँ,
                 कभी न बढ़ तुम आगे आये
पहल न करते ,बैठे रहते ,
                  आस मिलन की ,सदा लगाये
तट मुस्काया,हंस कर बोला ,
                 ना  ना ऐसी   बात  नहीं  है
चाव मिलन का ,जितना तुम में,
                  मेरे मन में ,  चाव  वही है
उठता 'ज्वार' तुम्हारे दिल में,
                  तो तुममे उफान आ जाता
और जब आता है 'भाटा 'तो ,
                    मै  नजदीक  तुम्हारे आता   

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

वक़्त

         वक़्त
नचाता   अपने  इशारों  पर  हमें  ये  वक़्त है
ये किसी पर मुलायम है और किसी पर सख्त है 
बदल देता एक पल में ,आपकी तकदीर को,
ये कभी रुकता नहीं है ,ये बड़ा कमबख्त   है
बहुत कहती घडी टिक टिक ,मगर ये टिकता नहीं,
ना किसी से द्वेष रखता ,और ना अनुरक्त है
इसका रुख ,सुख दुःख दिलाता ,ख़ुशी लाता और गम ,
दिला देता ताज ओ तख़्त ,हिला  देता  तख़्त है
'घोटू' इस पर  जोर कोई का कभी चलता नहीं,
इसके आगे ,आदमी क्या है ,खिलोना फक्त है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रीत की रीत

               
               
                     लहर   तट  संवाद 
                         प्रीत की रीत  
    ( बाली समुद्र तट  पर   लिखी  रचना )
       
  कहा तट से ये लहर ने 
  सुबह,शामो दोपहर  में                   
  मै  तुम्हारे  पास आती
  तुम्हारा  सानिध्य पाती
  मिलन  क्षण भर का हमारा 
   बड़ा सुन्दर,बड़ा प्यारा 
 मै बड़ी बेताब ,चंचल
मिलन सुख के लिये  पागल 
और पौरुष की अकड से
पड़े तुम  चुपचाप ,जड़ से
दो कदम भी नहीं चलते
बस मधुर रसपान करते
तुम्हारे जैसे दीवाने
प्रीत की ना रीत जाने
मिलन का जब भाव आता
कली  तक अली स्वयं जाता
प्यार पाने को तरसते
धरा पर बादल  बरसते
एक मै ही बावरी हूँ
तुम्हारे पीछे पड़ी हूँ
विहंस कर तट ने कहा यों
पूर्ण विकसित पुष्प पर ज्यों
तितलियाँ चक्कर लगाती
उस तरह तुम पास आती
प्यार का सब पर चढ़े रंग
प्यार करने का मगर ढंग
अलग होता है सभी का
कभी मीठा,कभी  तीखा
और तुम नाहक ,परेशां
सोचने लगती हो क्या क्या
प्यार में हम तुम सने है
एक दूजे हित  बने है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

जड़ों से बिछड़ने की कीमत


कंधे पर बस्ता ,
हाथों में गुलेल ,
लौट कर आते थे ,
पाठशाला से ,
धूल भरी पगडण्डी ,
पैरों में रबर की चप्पलें ,
बेतरतीब बाल ,
किनारे के पेड़ो पर ,
कभी चढ़ जाना ,
चिड़िया के घोसले में ,
ना जाने क्या तलाशना ,
पाठशाला के मास्साब को देख कर ,
छुप जाना , पतली मजबूत डंडियों के हाथों पर निशान,
अठखेली करते मस्ती से घर पहुचना ,
सच कितना आनंद था ,
अब तो अकल्पनीय लगता है यह सब ,
चकाचक चमकते जूते,
झकाझक कपडे ,
गले में टाई,
पीठ पर बस्ते का बोझ ,
बस के भीतर की घुटन ,
मास्साब नहीं , सर का बेगानापन ,
अब पढने में मज़ा नहीं आता ,
फिर कब मिलेगी वो पतली डंडियों की मार ,
पगडंडियों का अपनापन ,
काली डामर की सड़कों से,
जुड़ नहीं पाया कभी नाता ,
अ आ के बदले ए बी से शुरुआत ,
हमें अपनी ही संस्कृति से ,
बिछोह के रास्ते पर ले जाती ,
जड़ों से बिछड़ने की कीमत चुकानी पड़ेगी ,
नहीं हम जड़ों से बिछड़ने की कीमत तो ,
चुका ही रहे हैं ,

कापीराईट @विनोद भगत

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