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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-5

भगवती शांता परम सर्ग-5


भाग-2 
 सृंगी ऋषि,  कुल्लू घाटी
एवं 
सृन्गेश्वर महादेव, मधेपुरा


भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||


दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||


वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||


सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||


उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||


असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब  आवे क्रोध ||


अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||


धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||

इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्ड़क हैं यही, विनती करते लोग |


उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||


इन्ही विविन्ड़क ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||


ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||


जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव |


लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
 कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||

अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक |


हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||


छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||


मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक अति श्रेष्ठ ये, मिला पिता से बोध ||


नाहन के ही पास है, गुफा एक सिरमौर |
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||

सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||

सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||


अंगदेश का क्षेत्र यह, महिमामय अस्थान |
शांता-रूपा साथ माँ, आती करय परनाम ||

सोमवार, 28 नवंबर 2011

तेरे शहर का क्या नाम है?


तेरे शहर का क्या नाम है?
क्या वहां दो पल का आराम है?
यहाँ तो हर शहर मदहोश है,
न किसी को चैन है, न ही कहीं होश है I 

क्या वहां लोग दिल खोल के हँसते हैं?
मानव के रूप में मानव ही बसते हैं?
यहाँ तो हर शहर के लोग तनाव ग्रस्त हैं,
औरों की बात नहीं, सब खुद से ही त्रस्त हैं I 

अपराध और घोटाले क्या वह कुछ कम है?
सरकारी तंत्रों में क्या थोडा बहुत दम है?
इधर का हाल-बेहाल, अनियमितता का जाल है,
नाचती है आम जनता, नेता ठोकते ताल है I 

अगर हो ऐसा शहर तो जरा मुझे भी बताओ,
दो पल के लिए सही, एक बार तो बुलाओ,
इधर तो शहरों की संख्या बढती ही जा रही है,
पर आत्मीयता जैसी चीज़े कहीं खोती ही जा रही है I 

भगवती शांता परम सर्ग-5

भगवती शांता परम

भाग-1 
वन-विहार
माता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |
दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||

गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |
श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||

मन की चंचलता विकट,  इच्छा  मारे जोर |
रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर |

वटुक-परम पीछे  लगा,  सबकी नजर बचाय |
तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||

कौला लेकर औषधी,  रही भोर से खोज|
जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||

राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |
बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान  |

अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||

गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |
बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||

पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |
माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||

आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |
बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||

रथ आगे दीखे नहीं,  कैसे गया बिलाय |
अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||

उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |
आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||

उत्सुकता से बढ़ गया, झटपट झाड़ी फांद |
दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||

जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |
एक एक कर आ रहे, मन में सकल विकार ||

हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |
देखा अचरज से उधर, रहा बटुक निअराय ||

बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |
काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||

सुनकर के आवाज यह,  दोनों बाला धाय |
काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||

बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |
कहाँ हकीकत थी पता,  करती दोनों ओफ ||

काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||

झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |
बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||

जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
चौकन्ने थे कान सब,  बिना किये कुछ शोर || 

शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||  

गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |
रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||

युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |
पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||

घोड़े की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |
अस्त्रों को हैं भांजते,  बढ़ते शोर मचाय ||

उधर बाघ दीखे  नहीं, होय गर्जना घोर |
इधर उधर भागें सभी, वहाँ विचरते ढोर ||

घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |
जैसे आता जा रहा,  कोई हिंसक क्रूर ||

गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |
धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||

रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |
उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||

घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |
जैसे पीछे हो लगा, इक कोई  अतिकाय ||

सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |
घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||

रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक | 
कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||

शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |
आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||

घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |
तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||

याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |
तीन जान खातिर अड़ा, वह  अदना  इंसान ||

ध्यान हटाने को रमण,  मारा उसको तीर |
काया पकडे हाथ से,  देती नख से चीर ||

बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |
पिद्दी सा तू क्या लड़े,  पल में काम तमाम ||
[tataka+ramayana.jpg]
 देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |
साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||
 
घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |
अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||

लम्बे लम्बे ताड़का,  दौड़ी रख के पैर |
अट्ठाहास भर भर करे, शत्रु की ना खैर ||

होती देखी शाम तो, गया नदी में कूद |
रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||

परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |
सोम-मित्र  देखे सकल, तब आया था होश ||

जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |
राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||

शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |
लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||

काका प्यारे झूझते,  देते अपनी जान |
हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||

गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |
भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |

रूपा के  सौन्दर्य  को, ताके  सारे  मित्र |
सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||

गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |
काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||

यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||

असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |
दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब  क्रूर ||

पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||
मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||


वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||


शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |
रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||

मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान |

अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान || 


दालिम से सौजा कहे, मत  कर बेटा शोक |
इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||


रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |
दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||


रोते रोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |
घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||

कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |
ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||

पानी में बहता गया, पूरी काली रात |
बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||

भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |
इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||

दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव | 
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||

एहसास - ए- दिल


१. हंसाने वाले  मुस्कराहट  दे  ,,
खुद भी मुस्कुराते  हैं .
तो क्या यूँ  सबको रुलाने वाले भी,,,

कभी किसी के लिए आंसूं  बहाते हैं 


२.मैं हूँ उन लहरों की तरह 
जो ऊँचाई छुआ करती हैं 
मिल जातीं हैं रेत से पर 
खुद के अस्तित्व को कायम रखती हैं |


दीप्ति शर्मा 

रविवार, 27 नवंबर 2011

भगवती शांता परम : सर्ग-4

भगवती शांता परम : सर्ग-4

   भाग-2
चिन्तित अवध
शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
कौशल्या परजा रही, गम-सागर में डूब ||

हद  से  होता  पार  जब, दोनों  का  अवसाद |
अंगदेश को चल पड़ें,  कभी कहीं अपवाद ||

चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||

हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |

हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||

संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||

बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||

यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||

अनुसुय्या आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||

अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||

संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||

पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||

कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||

उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||

माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
 कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल || 

घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
 चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||


भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||

 भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||

संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||

मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||

कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध  |
कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||

रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||

चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||

कौशल्या की गोद के, सूख गए जो  फूल |
लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||

सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||

युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||

कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||

घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||

शांता बिन ये शादियाँ,  हो जाती नाकाम |
चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||

चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप,  राखें आँखें मीच ||

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