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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

''तुलना''

दोस्तों 

चांद को दूसरे अर्थो में समझने का एक अदना सा प्रयास मैने भी किया था 
जिसे आपके आशिर्वाद के लिये यहां प्रस्तुत कर रहा हूं 

''तुलना''

उस दिन अनजाने ही 
तुतने खुद अपनी तुलना 
चाँद से की थी 
तो सकपका गया था मैं
तुम्हारे अभिमान पर
मुझे नहीं दिख सका था
तुम्हारा गहन विस्तार
पर अब सोचता हूं
सचमुच चाँद जैसी ही हो तुम
वही चमक
वही शीतलता
वही धवलता
और वही बदलता स्वरूप्
आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना
और कल बादलों के पीछे छिपकर
अठखेलियां करना
बादल न भी हों
तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये
अपने स्वरूप को बदल लेना
क्योंकि चेहरा बदलने का
ऐसा हुनर है तुममें
जिसे मैं कभी नहीं पा सकता
क्योंकि तुम्हारी यातनाओं का
दहकता हुआ गोल सूरज हूं मैं

सोमवार, 2 जनवरी 2012

हिन्दी विकीपीडिया और कविताकोश पर काव्य-संग्रह ‘टूटते सितारों की उडान’ का लिंक

होनहार विरवान के होत चीकने पात कहावत को चरितार्थ करते हुये ब्लाग जगत के सक्रिय ब्लागर श्रीयुत सत्यम् शिवम् जी के द्वारा ‘टूटते सितारों की उडान’ नामक काव्य-संग्रह का संपादन करते हुये इसे उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित कराया गया है। इसमें ब्लाग जगत से जुडे बीस कवियों की रचनायें सम्मिलित की गयी हैं जिसमें छः प्रमुख महिला ब्लागर भी सम्मिलित हैं। संग्रह के नाम के अनुरूप इस संग्रह में सम्मिलित सभी रचनाकारों की रचनाऐं जीवन की आपा धापी में पल पल बिखरते जा रहे टूटते , छटपटाते रिश्तों का सच प्रगट करती हुयी सी जान पडती हैं। मूल रूप से इन्दौर में जन्मी और राजस्थान के कोटा जनपद में विवाहित दर्शन कौर वर्तमान में मायानगरी मुंबई में निवास कर रही हैं जिनकी रचनाओं में महानगरी में खो गया मानवीय रिश्ता इस प्रकार दिखा
........नाहक, तुम्हें बाँधने की कोशिश
छलावे के पीछे भागने वाले औंधे मुंह गिरते हैं
इस तपती हुयी मरू भूमि में
चमकती सी बालू का राशि
जैसे कोई प्यासा हिरन,
पानी के लिये
कुलांचे भरता जाता है
अंत में थककर दम तोड देता है
तुम्हारे लिये
इस मरूभूमि में मै भी भटक रही हूँ
काश कि तुम मिल जाते।...............
विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी वरिष्ठ हिन्दी कवियत्री सुश्री वन्दना गुप्ता जी की रचना का एक अंश देखें-.
...........न जाने कब
कैसे, कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतो
मेरी सोच
मेरी आत्मा को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षांऐं है
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधन मुक्त
ना हो पाती हूँ..
......................
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती महेश्वरी कानेरी जी सेवानिवृति के उपरांत देहरादून उत्तराखंड में निवास कर रही हैं। उनकी एक रचना का अंश देखें -
जीवन तो जीया है मैने
लेकिन कब वो अपना था?
रिश्तों के टुकडों में,
सब कुछ बँटा- बँटा था।
कभी रीति और रिवाजों
की ओढी थी चुनरी....
कभी परंपराओं का
पहना था जामा.....
आँखों में स्वप्न नहीं
समर्पण रहता , हर दम
रिश्तों का फर्ज निभाते
जीवन कब बीत गया
दायित्व के बोझ तले
बरबस मन, ये कहता
कौन हूँ मैं ? कौन हूँ मैं?.
.....................
इस काव्य-संग्रह में सम्मिलित प्रमुख व्लागर सर्वश्री रूप चंद्र जी शास्त्री ‘मयंक’ आदि कुछ रचनाकारों के नाम हिन्दी कविता की प्रतिष्ठित वेवसाइट । कविताकोश में भी उपलब्ध हैं अतः उनके पन्ने पर इस काव्य-संग्रह का लिंक ... भी कविताकोश में जोड दिया गया है जिसे पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करते हुये पहुंचा जा सकता है । इस कविता-संग्रह को । हिन्दी विकीपीडिया पर उपलब्ध हिन्दी पुस्तकों की सूची में भी जोडा गया है जो अभी अपने प्रारंभिक स्वरूप में है ... यदि आप चाहें तो स्वयं भी इसमें पठनीय सामग्रियों को जोड कर इसे और अधिक विकसित कर सकते हैं। आप को नव वर्ष ''२०१२'' की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ढेरों बधाइयाँ।

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।

आप सभी सुधी पाठकजनों को काव्य का संसार परिवार की ओर से नव वर्ष ''२०१२'' की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ढेरों बधाइयाँ।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
मंगलमय यह जीवन कर दो।
विद्या विनय बुद्धि का स्वर दो ।
बढे आत्मबल ऐसा कर दो।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
भेद भावना को हटवा दो।
जीवन को आदर्श बना दो।
भब्य भावना लिंगित कर दो।
अतुल ज्ञान दे साहस भर दो।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
जड़ता तिमिर हृदय का हर लो।
ज्ञान प्रभा आलोकित कर दो।
क्रन्दन करूण छात्र का हर लो।
नव स्फूर्ति उमंगी भर दो।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
भौतिक बल बौद्धिक गरिमा दो।
स्नेह प्रेम का पाठ पढा दो ।
हंस वाहिनी से मिलवा दो।
हम अंधो को ज्योति दिखा दो।
नये वर्ष! कुछ ऐसा वर दो।
(लगभग 25 वर्ष पूर्व अपने छात्र जीवन में लिखी यह रचना दैनिक ‘अमर उजाला’ के रविवारीय बरेली संस्करण में वर्ष 1983 में प्रकाशित हुयी थी)

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" को माँ का आशीर्वाद .....

प्रकाशित काव्य संग्रह को आशीर्वाद देती पूज्यनीया माँजी
श्रेष्ठ कवियत्री वंदना गुप्ता जी के द्वारा काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" में प्रकाशित मेरी कविताओं की समीक्षा .
.........उत्तर प्रदेश में रहने वाले प्रशासनिक अधिकारी श्री अशोक कुमार शुक्ला जी की कवितायेँ यथार्थ बोध कराती हैं ."इक्कीसवां बसंत" कविता में कवि ने बताया कि कैसे युवावस्था में मानव स्वप्नों के महल खड़े करता है और जैसे ही यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रखता है तब पता चलता है कि वास्तव में जीवन खालिस स्वप्न नहीं . "कैसा घर" कविता व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष है .तो दूसरी तरफ "गुमशुदा" कविता में रिश्तों की गर्माहट ढूँढ रहे हैं जो आज कंक्रीट के जंगलों में किसी नींव में दब कर रह गयी है .इनके अलावा "तुम", "दूरियां", "परिक्रमा" ,"बिल्लियाँ" आदि कवितायेँ हर दृश्य को शब्द देती प्रतीत होती हैं यहाँ तक कि बिल्लियों के माध्यम से नारी के अस्तित्व पर कैसा शिकंजा कसा जाता है उसे बहुत ही संवेदनशील तरीके से दर्शाया है........
"चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श पर
और गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँ
मैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दर
कितना उडा जा सकता है
आखिर क्यों नहीं सहा जाता
अपने पिंजरे में रहकर भी
खुश रहने वाली
चिड़ियों का चहचहाना"
तो दूसरी तरफ "वेताल" सरीखी कविता हर जीवन का अटल सत्य है. हर कविता के माध्यम से कुछ ना कुछ कहने का प्रयास किया है जो उनके लेखन और सोच की उत्कृष्टता को दर्शाता है .
श्रीमती वन्दना गुप्ता जी आपका आभार कि आपने संपूर्ण कविता संग्रह के संदर्भ में मेरी कविताओं को गहनता से पढकर सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की। "इक्कीसवां बसंत" कविता की पृष्ठभूमि के लिए इसी ब्लॉग पर लिंक है पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ ...
और यह रही "बिल्लियाँ" नामक पूरी कविता----
बिल्लियॉ
खूबसूरत पंखों वाली नन्हीं चिडियों को
एक पिंजरें में कैद कर लिया था हमने ,
क्योंकि उनके सजीले पंख लुभाते थे हमको,
इस पिंजरे में हर रोज दिये जाते थे
वह सभी संसाधन
जो हमारी नजर में
जीवन के लिये जरूरी हैं,
लेकिन कल रात बिल्ली के झपटटे ने
नोच दिये हैं चिडियों के पंख
सहमी और गुमसुम हैं
आज सारी चिडिया
और दुबककर बैठी हैं पिजरें के कोने में
,
पहले कई बार उडान के लिये मचलते
"चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श पर
और गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँ
मैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दर
कितना उडा जा सकता है
आखिर क्यों नहीं सहा जाता
अपने पिंजरे में रहकर भी
खुश रहने वाली
चिड़ियों का चहचहाना"
इस कविता की पृष्ठभूमि की चर्चा फिर कभी इसी ब्लॉग पर करूंगा
वन्दना जी पुनः आभार
अगर आप में से कोई भी इस काव्य संग्रह को पढना चाहता है तो उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" प्राप्त करने के लिए लेखक से अथवा सत्यं शिवम् जी से इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं ..........9934405997
........या इस मेल पर संपर्क किया जा सकता है .contact@sahityapremisangh.com

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

तय तो यह था... विनम्र श्रद्वांजलि

बीते नवम्बर की आठ तारीख को तरक्की के इस जमाने में एक जंगली बेल ... की मुहिम चलाने वाली सुश्री डा0 सन्ध्या गुप्ता जी नहीं रही । उनके असामयिक निधन की सूचना ब्लाग जगत में विलंब से प्राप्त हुयी । श्री अनुराग शर्मा जी के पिटरबर्ग से एक भारतीय नामक ब्लाग .. पर प्रकाशित श्रद्वांजलि से यह ज्ञात हो सका कि डा0 सन्ध्या गुप्ता जी नहीं रहीं। वे विगत नवम्बर 2010 तक अपने ब्लाग पर सक्रिय रूप से लिखती रहीं फिर लगातार ब्लाग जगत में अनुपस्थित रही थी । इस अनुपस्थिति की बाबत 4 अगस्त 2011 में एक दिन अचानक अपने ब्लाग पर ‘फिर मिलेंगे’... नामक शीर्षक के छोटे से वक्तब्य के साथ प्रगट हुयी थीं तब उन्होने अवगत कराया था कि वे जीभ के गंभीर संक्रमण से जूझ रही थीं और शीघ्र स्वस्थ होकर लौट आयेंगी । आज उन्हे श्रद्वांजलि स्वरूप प्रस्तुत है उनके ब्लाग पर नवम्बर 2010 को प्रकाशित उनकी ही कविता "तय तो यह था..."
तय तो यह था...
तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल
तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल
अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
प्रस्तुतकर्ता sandhyagupta पर ८:३२:०० पूर्वाह्न
सचमुच!
तय तो यह था कि
तुम इलाज के लिए गयी थी
सो लौट आती सकुशल
परन्तु ...तुम्हीं सो गये दास्तां कहते कहते....
ईश्वर डा0 सन्ध्या गुप्ता जी को स्वर्ग में स्थान दे इसी हार्दिक श्रद्वांजलि के साथ......

रविवार, 27 नवंबर 2011

यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?
रागिनी से राग गाकर क्या विरह का गान गाउॅ?
मैं अगर गा भी सका तो वह विरह का गान होगा।
छेड कर कोई गजल मैं क्यों समां बोझिल बनाउॅ?
सोचता हू दूर जाकर इस जहॉ को भूल जाउॅ।
याकि अपने ही हृदय का खून कागज पर बहाउॅ।
जानता हू कुछ लिखूगा वह प्रिये संवाद होगा।
क्यों निरर्थक स्याह दिल को कागजों में फिर लगाउॅ।
तिमिर की इस कालिमा में अरुण को कैसे भुलाउॅ?
जबकि खारा हो जहॉ प्रिय ! प्यास को कैसे बझाउॅ?
जिन कंटको से हृदय बेधित क्या उन्हें प्रियवर कहाउॅ?
क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

सोमवार, 14 नवंबर 2011

आताताइयों के इस समाज में

मै ठिठक कर रुक गया
मंदिर के आहाते में
आज फिर एक लाश मिली थी
तमाशबीन
लाश के चारों ओर खडे थे
नजदीक ही कुछ
पुलिसवाले भी खडे थे
उत्सुकतावश मै भी शामिल हो गया तमाशवीनों में
देखा कटे हाथों वाली वह लाश
औधे मुॅह पडी थी
नजदीक ही उसके कटे हाथ पडे थे
जिसकी मुट्ठियॉ
अभी तक भिंची थी
न मालूम क्रोध से अथवा विरोध से
भीड का एक आदमी
चिल्ला चिल्लाकर बता रहा था
आज दूसरा दिन हुआ है
मंदिर को खुले और
हिंसा फिर होने लगी है
मुझे उसकी बात पर हॅसी सी आयी
तभी पुलिसवाले ने मेरी तरफ निगाह घुमायी
और बोला मिस्टर! तुम जानते थे इसे?
मैने कहा- जी नहीं,
तभी दूसरे ने लाश को
पलट दिया
लाश का चेहरा देखते ही मै सकपका गया
खून से लिपटी
कटे हाथों वाली वह लाश
किसी और की नहीं
मेरी अपनी ही तो थी?

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

अमृता प्रीतम की कविता और उनकी धरोहर को बचाने की अपील

अमृता प्रीतम जी का एक लोकप्रिय उपन्यास है ‘एक थी सारा’ इस उपन्यास के संबंध में अमृता जी ने अपनी जीवनी में लिखा था कि यह एक सच्ची कहानी थी उन्होंने सारा के साथ खतोकिताबत की बात भी स्वीकारी है और लिखा है सारा का पहला खत जो मुझे मिला 1980 में उस पर 16 सितम्बर की तारीख थी लिखा था अमृता बाजी! मेरे तमाम सूरज आपके। मेेरे परिन्दों की शाम भी चुरा ली गयी है आज दुख भी रूठ गया है कहते है फैसले कभी फासलों के सुपुर्द न करना!
मैने तो फैसला आज तक नहीं देखा
यह कैसी आवाजें हैं!
जैसे रात को जले कपडों में घूम रही हैं............
जैसे कब्र पर कोई आँखें रख गया हो!
मैं दीवार के करीब मीलों चली, और इन्सानों से आजाद हो गयी
मेरा नाम कोई नहीं जानता , दुश्मन इतने वसीह क्यूँ हो गये !
मैं औरत- अपने चाँद में आसमान का पैबन्द क्यूँ लगाऊँ?
मील पत्थर ने किसका इन्तजार किया!
औरत रात में रच गई है अमृता बाजी!
आखिर खुदा अपने मन में क्यूँ नहीं रहता!
आग पूरे बदन को छू गई है
संगे मील, मीलों चलता है और साकत है.....
मैं अपनी आग में एक चाँद रखती हूँ
और नंगी आँख से मर्द कमाती हूँ
लेकिन मेरी रात मुझसे पहले जाग गई है
मैं आसमान बेचकर चांद नहीं कमाती...........
खत हाथ में पकडा रह गया ... लगा ...आसमान फरोशों की दुनिया में यह सारा नाम की लडकी कहाँ से आ गई? तो इस दुनिया में कैसे जिएगी? चाहा इसे दिल में छिपा लूँ.......- और यह रही धूल धूसरित मकान की आज की सूरत स्व0 अमृता प्रीतम जी के निवास के25 हौज खास को बचाकर उसे राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संजोने के लिये अनेक साहित्य प्रेमियों द्वारा माननीय राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य एवं दिल्ली सरकार से अनुरोध किया है। ऐसा विश्वास है कि इस मुहिम का असर अवश्य ही होगा । फिलहाल इस मुहिम में शामिल लोगों के प्रयासों का हाल लिंक के रूप में आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ साथ ही यह भी उम्मीद करूँगा कि आप भी अपना अमूल्य सहयोग देकर इस मुहिम को आगे बढाते हुये महामहिम से इस प्रकरण में हस्तक्षेप का अनुरोध अवश्य करेंगें। कृपया एक पहल आप भी अवश्य करें यहाँ महामहिम राष्ट्रपति जी का लिंक यहां है ।!!!!

बुधवार, 2 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक
उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर
होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

दूरियॉ

वर्ष 1985 के लगभग लिखी निम्न पंक्तियों को आपके साथ साझा कर रहा हूँ
विकास के युग में माना घट गयी हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की अब बढ गयी हैं दूरियॉ ।।
सूर्य का गोला लटकता है हर इक छत से जरूर ।
किन्तु इतने पास अब रहते नहीं है दिल हुजूर ।।
चॉद तक जाने लगे हैं यान माना बेलगाम ।
पर धरा के चॉद का अब रह गया है सिर्फ नाम ।।
संसार आकर है सिमटता हर सुबह इस मेज पर ।
क्या हुआ अपने बगल में जानेंगे पढकर खबर ।।
शोर पुर्जों का हुआ है इस कदर कुछ बेअदब ।
पंछियों का मधुर कलरव खो गया इसमें अजब ।।
अब धरा लगती खिलौना यूँ सहज हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की पर बढ गयी हैं दूरियॉ।।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ कविता

संभवतः वर्ष 1999 के जून माह का अवसर रहा होगा। मेरी तैनाती ऋषिकेश से 15 किलोमीटर दूर पर्वतीय जनपद टिहरी गढवाल की एकमात्र अर्द्धमैदानी तहसील नरेन्द्रनगर में थी। उत्तराखंड राज्य की घोषणा हो चुकी थी बस उसे अवतरित होना बाकी था। तत्कालीन भारत सरकार के प्रधानमंत्री महोदय का उत्तराखंड आना प्रस्तावित था जिसके लिये आसपास के सभी जनपदों से प्रशासनिक अधिकारियों को शान्ति व्यवस्था हेतु जिम्मेदारी सौंपी गयी थीं । मुझे भी एक ऐसी ही मीटिंग में भाग लेने हेतु देहरादून कलक्ट्रेट पहुंचना था।
प्रातः जल्दी उठा और सरकारी कारिन्दों के साथ सरकारी जीप से देहरादून के लिये चल पड़ा। ऋषिकेश से कुछ किलोमीटर आगे बढ़ने पर थोड़ा सा रास्ता जंगल से होकर गुजरता था । इसी जगह पहँच कर देखा आगे रास्ते पर भारी भीड खडी है। सरकारी जीप को आते देखकर भीड़ इस आशय से किनारे हो गयी कि शायद पुलिस आ गयी है। कैातूहलवश जीप रोकवा कर मैं भी उतर पडा और भीड को लगभग चीरता हुआ आगे बढ आया। देखा सड़क से पचास मीटर दूर जंगल की अंदर एक युवती की अर्द्वनग्न लाश पड़ी थी।
आसपास एकत्रित भीड किसी मदारी के सामने खड़े तमाशबीनों की तरह उस लाश को देख रही थी। मैने आगे बढकर देखा युवती लगभग इक्कीस वर्ष की थी उसके शरीर पर छींटदार सूट और गले में रंगीन दुपट्टा था। गौरतलब बात यह थी उसके दाँये हाथ की कलाई पर ड्रिप के माध्मम से दवा, ग्लूकोस आदि चढ़ाये जाने वाली नली लगी थी। पास ही ऐक अधचढ़ी ड्रिप और नली भी पड़ी थी। युवती के शरीर केे निचले हिस्से केा देखने से स्पष्ठ प्रतीत होता था कि वहा गर्भवती थी। यह स्पष्ट था कि अनचाहे गर्भ से निजात पाने के दौरान किसी गंभीर काप्लिकेशन के कारण ही उसेकी मृत्यु हुयी थी और उसका तीमारदार अपनी जान छुड़ाकर उसे इस तरह छोड़कर भाग गया होगा। मैने आगामी कार्यवाही के लिये स्थानीय पुलिस को फोन किया और अपनी जीप से आगामी कार्यक्रम के लिये चल पड़ा।
परन्तु उस युवती की यह दशा देखकर मैं व्यथित हो गया था । वह युवती मेरे मष्तिश्क से जाने का नाम ही नहीं लेती थी , मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी , वह जैसे मेरी जीप में आकर ही बैठ गयी थी । परन्तु उस युवती की यह दशा देखकर मैं व्यथित हो गया था ।
वह युवती मेरे मष्तिश्क से जाने का नाम ही नहीं लेती थी , मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी , वह जैसे मेरी जीप में आकर ही बैठ गयी थी । मै सोचने लगा कि आखिर किसी की प्रेमिका रही होगी वह ? प्रेम के वशीभूत अपने प्रेमी के आलिंगन में बंधने को कैसी आतुर रही होगी वह ?
और उस सम्मोहक आलिंगन की परिणति इस रूप में होगी, क्या कभी उसने सोचा होगा ? नहीं ना! बस इसी पृष्ठभूमि में उस नवयौवना को श्रंद्धांजलि स्वरूप कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जो समर्पित थीं उस प्रारंभिक निश्छल आलिंगन को, और उस इक्कीसवें बसंत को जो चाहकर भी अगली बहार या पतझड़ नहीं देख सकी थी।
वह श्रंद्धांजलि पूर्व में ‘साहित्य शिल्पी’ के संस्करण में कविता ‘इक्कीसवाँ बसंत’ के नाम से जारी हुयी है जिसे आज यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इक्कीसवॉ बसन्त
तपते रेगिस्तान में
पानी की कामना जैसी
धुप्प अंधेरे में
रोषनी की किरण फूटने जैसी
मॉ से बिछडे हुए
किसी अबोध का मिलने पर
मॉ की छाती से चिपककर रोने जैसी
मंझधार में डूबते हुए को
किनारा पाकर मिलने वाली संतुश्टि जैसी
कुछ ऐसी ही तो थी
उस इक्कीसवें बसंत की कल्पना
लेकिन यथार्थ की कठोरता
जब तमाचा बनकर
मेरे गालों पर पडीं
तब मैने जाना कि
चॉदनी रात कैसे आग उगलती है?
चंदन का आलिंगन
कितना जहरीला हो सकता है?
दिये की लौ
कैसे झुलसा सकती है?
प्रेम की आसक्ति
कितना लाचार कर सकती है?
चहचहाती चिडिया
एक पल में सहम कर
मौन हो सकती है
निरीह मेमना
मिमियाकर तुरंत निस्तेज हो सकता है
अगर वह भी
मेरी तरह किसी
कसाई के साथ हो
‘साहित्य शिल्पी’ पर पूरी कविता पढ़ने के लिए आगामी लिंक पर क्लिक करे ......... पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ कविता

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

समय की धारा में पीछे लौटकर 1979 तक जा पहुँचा हूँ जहाँ मैने अपनी पहली कविता लिखी थी।

हिंदी संस्थान के सभागार में वर्ष 2000 में राहुल फाउन्डेशन की ओर से आयोजित उस गोष्ठी की याद हो आयी जब सुप्रसिद्व चिंतक और विज्ञान लेखक श्री गुणाकर मुले द्वारा ‘समय से जुडे कालस्य कुटिला गतिः’ नामक विषय पर ऐक व्याख्यान को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था उस संगोष्ठी में उन्होंने समयरेखा पर दार्शनिक तथा वैज्ञानिक यात्रा कराने का सुख श्रोताओं को उपलब्ध कराया था। कदाचित इस गोष्ठी में जाकर भी मैं उस टाइम मशीन पर सवार होकर लौटा हूँ जिसमें समय की धारा में पीछे लौटकर 1979 तक जा पहुँचा हूँ जहाँ मैने अपनी पहली कविता लिखी थी। यह कविता मेरे स्कूल की पत्रिका के साथ साथ साप्ताहिक समाचार पत्र‘गढवाल मंडल’ मे छपी थी। विद्यालय पत्रिका की प्रति न जाने कहाँ गुम हो गयी परन्तु समाचार पत्र की कतरन आज भी सहेजी रखी है। है। कदाचित आपको यह आज भी सार्थक जान पडे। संकल्प(कविता)
हमको आगे बढना है , हिमगिरि पर भी चढना है।
हिम्मत करके हमको वीरों हमको कदम बढाना है।
हम भारत के श्रेष्ठ नागरिक हमको देश जगाना है।
इसी देश के हित में मरकर अमर हमें हो जाना है।
इस धरती पर जन्म लिया तो यही हमारा धाम है।
इसकी रक्षा में मर मिटना मात्र हमारा काम है।
माँ भारत का मान बढाना इसको नित चमकाना है ।
बढे देश का मान सदा ही यही ध्येय हो हम सबका।
सभी धर्म वाले भाई हैं भाव रह अपने पनका।
और छात्र को निष्ठा पूर्वक, नित्य नियम से पढन है।
गाँधी गौतम के सिद्धांतो को फिर से अपनाना है।
माँ के गौरव मस्तक पर नया मुकुट नित मढना है।
हमको आगे बढना है , आगे कदम बढाना हैं।
हमको आगे बढना है , हिमगिरि पर भी चढना है।
अशोक कुमार शुक्ला कक्षा 9 पौडी गढवाल (मेरी प्रथम प्रकाशित कविता, रचनाकाल सन 1978, प्रकाशक-साप्ताहिक‘गढवाल मंडल)

शनिवार, 10 सितंबर 2011

कैसा घर

यह कैसा घर ?
जहॉ बिस्तर पर उगी है नागफनी
आंगन में घूमते हैं संपोले
सोफे पर बिखरी हैं चींटियॉ,
खूंटी पर टंगे हैं रिश्ते
बालकनी में लटका है भरोसा,
बाथरूम की नाली में बह गयी हैं परंपरायें

दीमकों ने चाट लिये हैं

सुरक्षा के तने,

संस्कारो को निगलता टेलीविजन,
और पूजाघर में
कुछ इस तरह बंसी बजाते श्री कृश्ण
जैसे रोम के जलने पर
बंसी बजाता रहा था
वहॅा का शासक नीरो
सचमुच कैसा है यह घर ?

शनिवार, 3 सितंबर 2011

चीखों जैसी किलकारियाँ!

(भारतीय नारी के विषय ‘मादा भ्रूण हत्या’ को समर्पित एक प्रश्नावली )
आखिर क्यों ?
शहनाई और किलकारी,
क्रमागत हैं एक दूसरे की!
कुछ महकाती हैं आँगन को
तो चीखों जैसी लगती हैं कुछ !
आखिर क्यों?
आखिर क्यों ?
किसी एक का सृजन पूज्य है
और दूसरे का त्याज्य ?
किसी का निर्माण वरदान सा हैं
और दूसरे का अभिशप्त !
आखिर क्यों ?
आखिर क्यों ?
हर सृजन का साकार होना
एक जैसा नहीं है!
‘उस’ सृजन से पूर्व भी तो बजी थी
मंदिर की वैसी ही घंटियाँ!
जिनको सुनकर
धरा पर उतर आयी थी वो शक्ति!
जिसके बगैर सब ‘मिट्टी’ है,
फिर क्योंकर तुम्हारे समाज में
शापित हैं कुछ किलकारियॉ
और कुछ हैं महिमामंडित ?
आखिर क्यों?

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