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शनिवार, 25 जून 2016

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है
योगी भी हूँ, भोगी भी हूँ ,
और थोड़ा सा ,ढोंगी भी हूँ,
बहुत विदेशों में घूमा हूँ ,
शौक मगर फिर भी देशी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
पीज़ा भी अच्छा लगता है ,
डोसा भी है मुझको भाता
चाउमिन से स्वाद बदलता ,
और बर्गर खा कर मुस्काता
लेकिन रोज रोज खाने में ,
दाल और रोटी   ही खाता
केक पेस्ट्री कभी कभी ही,
चख लेना बस मुझे सुहाता 
किन्तु जलेबी ,गरम गरम हो,
या गुलाबजामुन रस डूबे,
खुद को रोक नहीं मै पाता ,
गर मिठाई रबड़ी जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
कभी ,नहीं दुःख में रो पाता ,
कभी ख़ुशी में आंसूं आते
मैंने अब तक उम्र गुजारी ,
बस यूं ही ,हँसते,मुस्काते
चेहरे पर खुशियां ओढ़ी है
अपने मन का दर्द छिपाते
थोड़ा चलना अब सीखा हूँ,
धीरे धीरे ,ठोकर  खाते
कितनी बार गिरा,सम्भला हूँ,
पर फिर भी ना हिम्मत हारी ,
मुझे पता है ,टेडी मेढ़ी ,
जीवन की राहें कैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
 मुझे नहीं बिलकुल आता है,
किसी फटे में टांग अड़ाना 
कोई बेगानी शादी में ,
बनना अब्दुल्ला ,दीवाना
बन मुंगेरीलाल देखना ,
सपना कोई हसीन,सुहाना
डींग मारना बहादुरी की ,
कॉकरोच से पर डर जाना
लाख शेरदिल कहता खुद को ,
लेकिन बीबी से डरता हूँ ,
उसके आगे मेरी हालत,
हो जाती गीदड़ जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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