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शनिवार, 19 सितंबर 2015

सुलहनामा

        सुलहनामा

  हम दोनों के बीच जम गयी जो दीवार बरफ  की,
आओ उसे ,प्यार की गरमी  देकर हम पिघला लें
ना तुम करो शिकायत ,शिकवा ,ना मैं ही कुछ बोलूं ,
अपनी आपस की उलझन को,आपस में सुलझा लें
मैंने माना खता हो गयी ,कुछ गलती थी मेरी ,
पर थोड़ा तो दोष तुम्हारा भी था इस अनबन में
मेरी इस गुस्ताखी को तुम ,यूं ही टाल सकती थी, 
नहीं इसतरह ,विचलित होती,उसको लेकर मन में
उल्टा तुमने ,उन लपटों में ,तपता घी था डाला ,
तुम्हारी इस प्रतिक्रिया ने आग और भड़का दी
आपस में टकराव अहम का ,ऐसा हुआ हमारे ,
हम दोनों के बीच दूरियां ,इसने और बढ़ा दी
रहें एक छत के नीचे हम ,लेकिन अनजानों से,
तुम भी तड़फ़ो ,मैं भी तड़फूं,मन ना रहता बस में
तुम इस करवट,मैं उस करवट,जाग रहे है दोनों,
बेहतर ये होगा समझौता ,कर लें ,हम आपस में
पहले पहल कौन करता  इस ,इन्तजार में दोनों,
इस प्यारी वासंती ऋतू में,शीत  युद्ध है चलता
कुछ तो कमी रही होगी जो हुई ग़लतफ़हमी ये,
रहना यूं गहमागहमी में,बहुत मुझे है खलता
अब महसूस कर रहे हैं हम ,पीड़ा विच्छेदन की,
अलग एक दूजे से रह कर ,कैसे जी पाएंगे
चार कदम तुम आगे आओ ,चार कदम मैं आऊं ,
तब ही होगी दूर दूरियां ,हम तुम मिल पाएंगे
आओ मिलन राह पर चल कर,हम करीब आ जाएँ
अपने अपने अहम त्याग कर ,दूरी सभी मिटा लें
हम दोनों के बीच जम गई ,जो दीवार बरफ की,
आओ उसे प्यार की गरमी देकर हम पिघला लें

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

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