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शनिवार, 25 जुलाई 2015

हम कितने पागल है

         हम कितने पागल है

बुढ़ापे में अपने को परेशान करते हैं 
बीते हुए जमाने को  याद करते हैं 
संयम से संभल संभल ,रहते  हरपल हैं  
सचमुच  हम कितने पागल हैं 
अरे बीते जमाने में क्या था ,
दिन भर की खटपट
गृहस्थी का झंझट
कमाई के लिए भागदौड़
आगे बढ़ने की होड़
उस जमाने में हमने जो भी जीवन जिया
अपने लिए कब जिया
सदा दूसरों के लिए जिया
इसलिए वो ज़माना औरों का था ,
हमारा ज़माना आज है
आज हमें किसी की परवाह  नहीं ,
घर में अपना राज है
एक दूसरे को अर्पित
पूर्ण रूप से समर्पित
हमारा प्यार करने का निराला अंदाज है
न किसी की चिता ,न किसी का डर
मौज मस्ती में  डूबे हुए,बेखबर
एक दुसरे का है सहारा
आज ही तो है,ज़माना हमारा
प्यार में डूबे हुए ,रहते हर पल है
फिर भी बीते जमाने को याद करते है,
सचमुच ,हम कितने पागल है
जवानी भर,मेहनत कर ,जमा की हुई पूँजी
अपने पर खर्च करने में,दिखाते कंजूसी
ऐसी आदत पड़  गयी है,पैसा बचाने की
अरे ये ही तो उमर है ,
अपना कमाया पैसा ,अपने पर खर्च करके ,
मौज और मस्ती मनाने की
क्योंकि अपने पर कंजूसी कर के ,
तुम जो ये पैसा बचा रहे है जिनके लिए 
वो तुम्हारे,क्रियाकर्म के बाद ,
आपस में झगड़ेंगे ,इसी पैसे के लिए
 तुम जिनकी चिंता कर रहे हो  ,
उन्हें आज भी तुम्हारी परवाह नहीं ,
तो तुम क्यों उनकी परवाह करते हो
उनके भविष्य के लिए बचा कर ,
क्यों अपना आज तबाह करते हो
तुम्हे उनके लिए जो करना था ,कर दिया,
आज वो अपने पैरों पर खड़े है
अपनी अपनी गृहस्थी में मस्त है
उनके पास ,तुम्हारे लिए कोई समय नहीं ,
वो इतने व्यस्त है
तो अपनी बचत,अपने ऊपर खर्च करो ,
खूब मस्ती में जियो ,
उनकी चिता मत व्यर्थ करो
मरने के बाद ,स्वर्ग जाने के लालच में ,
यहाँ पर नरक मत झेलो
अरे स्वर्ग के मजे यहीं है ,
खुल कर खाओ,पियो और खेलो
ये  बुढ़ापे की उमर ही ,
एक ऐसी उमर होती है ,
जब आदमी अपने लिए जीता है
बिना रोकटोक के ,अपनी ही मर्जी का ,
खाता और पीता है
क्या पता फिर ये ख़ुशी के पल ,हो न हो
क्या पता,कल,हो न हो
आदमी दुनिया में उतने दिन ही जीता है
जितना अन्न जल है
फिर भी हम परेशान रहते है,
सचमुच,हम कितने पागल है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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