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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

क्या वो शख्स मैं ही हूँ?

         क्या वो शख्स मैं ही हूँ?  

मैं जब भी आइना देखता हूँ,
मुझे एक शख्स नज़र आता है
जिसका हुलिया,एकदम ,
मेरी तरह का ही दिखलाता है
पर कभी कभी ,ये लगता है,
मैं कोई अनजान , अजनबी हूँ  
और  मैं  यह नहीं समझ पाता ,
कि क्या वो शख्स मैं ही  हूँ   ?
एक शैतान  बच्चा जो अपने भाई बहनो की ,
गुल्लक तोड़ कर ,पैसे चुराया करता था
और उन पैसों से चोरी चोरी ,गोलगप्पे ,
 बर्फ का गोला और टाफियां खाया करता था
जो बरसात में ,घर के आगे बहती नालियों में ,
कागज़ की नाव  तैराया करता था
और उसके साथ ,दूर तक भाग भाग कर ,
तालियां  बजाया  करता  था
 वो  जो  दरख्तों पर  लगे आम या इमलियां
पत्थर फेंक फेंक कर तोडा करता था
कभी लट्टू घुमाता ,कभी गिल्ली डंडे खेलता ,
कभी पतंगों को लूटने ,दौड़ा करता था
और दिन भर की मस्ती के बाद ,
थका हारा ,जब पस्त  हो जाता था
तो  बूढी  दादी अम्मा  की गोदी में ,
अपना सर रख कर  ,सो जाता था 
वो शख्स ,जीवन की आपाधापी में ,
लुटी पतंग की डोर सा उलझ गया है
गिल्ली डंडे खेलने वाला ,तकदीर के डंडे खा,
इधर उधरगुम होने वाली,गिल्ली बन गया है
गृहस्थी चलाने के चक्कर में ,
दिन भर लट्टू सा घूमता रहता है
 कागज़ की नाव की तरह ,
कभी डूबता ,कभी इधर उधर बहता है
वो शख्स ,जिसकी आँखों में चमक होती थी ,
और जो रहता था,सदा मुस्कराता
उसकी पेशानियों पर ,अब परेशानी है,
और बुझा बुझा सा ,चेहरा है नज़र आता
लोग कहते है ,आइना झूंठ नहीं बोलता ,
तो क्या मैं झूंठ बोल रहा हूँ
दुनियादारी के कीचड में लथपथ,
क्या वो शख्स मैं  ही हूँ ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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