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रविवार, 2 सितंबर 2012

रेलवे के सफ़र का बदलाव

रेलवे के सफ़र का बदलाव

रेलवे के सफ़र में बदलाव कितना आ गया है

याद है पहले सफ़र में,निकलते थे जब कभी हम
पेटी और होल्डाल बिस्तर,साथ रखते थे सभी हम
पानी का जग,एक दो दिन का जरूरी साथ खाना
और भारी भीड़ में भी ट्रेन में घुसना,घुसाना
हवा वाली,बंद वाली,कांच वाली खिड़कियाँ थी
और नीचे  सीट पर पटिया लगा या लकड़ियाँ थी
निकलता स्टीम इंजिन से धकाधक धुवाँ काला
और मिटटी के सकोरों में भरा चाय का प्याला
ट्रेन रुकते,प्याऊ नल पर,यात्रियों की जोरा जोरी
वो गरम छोले भठूरे,पूरी सब्जी और कचोडी
पर समय के साथ बदली ,रेलगाड़ी की कहानी
तेज गति चलती दुरंतो,और शताब्दी,राजधानी
लगा रहता सभी सीटों पर नरम गद्दा ,मुलायम
बिस्तर,तकिया और कम्बल,एसी का खुशनुमा मौसम
सर्व होता सीटों पर ही ,नाश्ता और खाना पीना
ट्रेन बिजली से चले,काला धुंवा उठता  कभी ना
तेज गति से नापती है,दूरियां थोड़े समय मे
सरसराती दौड़ती है,सभी ट्रेने,एक लय  में
केबिनों में लगे परदे,साज सज्जा ,सब नया है
रेलवे के सफ़र में बदलाव कितना आ गया है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

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