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गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

टुकड़े

टुकड़े कितने जरुरी है ,
रोटी का हो या जमीन का ,
और कडकती ठण्ड में ,
एक अदद धूप का टुकड़ा ,
जीवन की निशानी होता है ,
पर टुकडो में बटना किसी को स्वीकार नहीं ,
फिर भी हम रोटी और जमीन के टुकड़े के लिए ,
टुकड़ों में बंट रहे है ,
एक टुकडा रोटी देने को हम तैयार नहीं ,
पर ह्रदय के टुकड़े करने में हमे महारथ हासिल है ,
टुकडा टुकडा होते हम ,
नहीं समझ पा रहे अभी भी हम ,
और कितने टुकड़ों में बटेंगे हम ,
टुकडा होने का यह खेल जारी रहेगा कब तक ,
कब सोचेंगे हम ,
नहीं जानते ,
अभी तो टुकडा टुकडा होने में व्यस्त है |

रचनाकार:- विनोद भगत

1 टिप्पणी:

  1. "इसीलिए शायद टुकडो टुकडो में जीने की आदत हो गयी है सबको" ,बहुत सुन्दर रचना है|

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